Monday, December 21, 2015

silence


दक्षिण भारत में एक अपूर्व संत हुआ जिसका नाम था–सदाशिव स्‍वामी। एक दिन अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख कर विवाद में उलझ गया। उसने उस पंडित के सारे तर्क तोड़ दिये। उसके एक-एक शब्‍द को तार-तार कर दिया। उसके सारे आधार जिन पर वह तर्क कर रहा था धराशायी कर दिये। उसकी हर बात का खंडन करता चला गया। उस पंडित की पंडिताई को तहस नहस कर डाला। पंडित बहुत ख्‍याति नाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपथपायेगा और कहेगा, कि ठीक किया, इसको रास्‍ते पर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने केवल इतना ही कहां: सदाशिव, अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्‍यों व्‍यर्थ, व्‍यर्थ उलझते हो इस जंजाल में। ये तुम्‍हें स्‍वयं के भीतर तुम्‍हें न जाने देगी। हो सकता है तुम्‍हारा ज्ञान तुम्‍हारे अहं को पोषित करने लग जाये। ज्ञान तलवार की तरह है। और ध्‍यानी का ज्ञान तो दो धारी तलवार। जिसके दोनों तरफ धार होती है। पंडित को ज्ञान तो एक तरफ का होता है। इससे बच संभल। और देख अपने अंदर।

सदाशिव ने एक बार गुरु की और देखा। चरण छूये और कहां आप कहते है कब अभी हुआ जाता हूं। और वह मौन हो गया चुप हो गया। फिर जीवन भर एक भी शब्‍द नहीं बोला। उन्‍होंने जीवन भर मौन रहने की साधना स्‍वीकार कर ली। मौन थे और नग्‍न भी। नग्‍न रहते ओर चुप, रहते बड़ी झंझट आती थी, बार-बार। जहां कहीं भी जाते कुछ ने कुछ बेबूझी सी घटना घट जाती थी। और कुछ नहीं तो औरतें गाली देती, बच्‍चे पत्‍थर मारते। ध्यान उनका गहराता चला गया। समाधि की सुगंध फूटने लग गई। आस पास उनके माधुरिये बरसने लगा। पर ये सब कम ही आंखे देख पाती थी। उसकी मस्‍ती उसकी चाल। ज्यादा तो हम उपरी आवरण ही दिखाई देता है और हम उसी में उलझ जाते है। उसकी मस्‍ती देखते ही बनती थी। और सदाशिव पूरा दिन उस मस्‍ती में मस्‍त रहते थे।

एक बार एक अनहोनी घटना घट गई। एक दिन भूल से एक मुसलमान सरदार के शिविर में चले गये। मस्‍ती में जा रहे थे नाचते, शिविर बीच में पड़ गया होगा तब उन्‍हें कहां शिविर की परवाह थी। वह कोई शिविर के लिए गये थोड़े ही गये थे। अब शिविर में कुछ औरतों ने सदाशिव को नग्‍न देख कर लगी शोर मचानें। चारों तरफ चीख पुकार मच गई। अब कहां सदा शिव की मस्‍ती दिखाई देती बस एक ही बात कोई नग्‍न फकीर नाचता हुआ चला आ रहा है। इस तरह से अचानक एक नग्‍न साधु को अंदर आया देख कर चारों तरफ से औरतों की चीख पुकार ओर भगदड़ को देख कर सरदार को क्रोध आ गया। और उसने तलवार उठा कर हमला कर दिया। और मस्‍त नाचते सदा शिव का एक हाथ शरीर से अलग हो दुर जा गिरा। खून का फव्वारा फूट पडा। लेकिन ये क्‍या सदा शिव की मस्‍ती तो जर भी कम नहीं हुई। उसके नाच में उसके आनंद में रति भर भी फर्क नहीं आया। और तो और क्षण भर पहले जिन दोनों हाथों हिला-हिला कर सदाशिव नाच रहा था अब तो उसके पास मात्र एक ही हाथ था। और जैसे नाचता हुआ अंदर आया था उसी तरह नाचता द्वार के बहार की और जाने लगा।

सरदार तो हैरान परेशान, वह तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। उसने तो युद्ध में कटे अंग के जितने भी मनुष्‍य देखे थे वह रो रहे होते चीख रहे होते। तड़प रहे होते। पर यह क्‍या यह तो कुछ अनहोनी सी बात हो गई। अब उसे कुछ-कुछ समझ आने लगा था। उसका क्रोध एक दम कम हो जाने की वजह से उसे दिखाई दिया सदाशिव का आनंद। उसे दुःख भी हो रहा था। यह मस्‍ती, उसे पहले क्‍यों नहीं दिखाई दी।, ऐसी मस्‍ती उसने इससे पहले कभी देखी नहीं थी। हाथ कट जाये ओर पता भी न हो। यह आदमी किसी और ही लोक में जी रहा है। उसकी चाल उसकी आंखें इस लोक की लगती ही नहीं थी। वह देह आलोकिक थी जैसे उसमें चेतना उसके सौंदर्य को प्रस्फुटित कर रही थी। सरदार भागा और उस के चरणों में गिर पडा। क्षमा मांगने लगा। सदाशिव हंसने लगे। सरदार ने कहा, उपदेश दें। वह तो मौन थे। उपदेश दे नहीं सकता था। तब उसने दूसरे हाथ की उँगली से रेत पर एक छोटा सा वचन लिख दिया। जानते है वह वचन क्‍या था—

‘’जो तुम चाहते हो वह मत करो,

तब तुम जो चाहोगे कर सकोगे।‘’

बड़ी अनूठी बात लिखी सदाशिव ने। जो-जो कामना तुम कर रहे हो। वह मत करे। तब तुम जो-जो कामना करते हो सब मिल जायेगी। यह बड़ी अजीब सी बात लिखी सदाशिव ने।

सरदार ने उसे अपना गुरु बना लिया। और सदाशिव का शिविर में ही उपचार करवाया। जब तक सदाशिव के कटे हाथ का जख्‍म भर नहीं गया उसे जाने नहीं दिया गया।।


जय श्री कृष्णा......



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