झेन में कोई पाच सौ वर्ष पहले, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, बांकेई। जापान का सम्राट उसके दर्शन को गया। बड़ी चर्चा सुनी, बड़ी प्रशंसा सुनी, तो गया। सुना उसने कि दूर दूर पहाड़ पर फैली हुई मोनेस्ट्री है, आश्रम है। कोई पांच सौ भिक्षु वहां साधना में रत हैं। तो गया। बांकेई से उसने कहा, एक एक जगह मुझे दिखाओ तुम्हारे आश्रम की, मैं काफी समय लेकर आया हूं। मुझे बताओ कि तुम कहा कहा क्या क्या करते हो? मैं सब जानना चाहता हूं।
आश्रम के दूर दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं अध्ययन करते हैं कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में आश्रम के सारे विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण शिखसे, से मंडित एक मंदिर है।
बांकेई ने कहा, भिक्षु जहां जहां जो जो करते है, वह मैं आपको दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में!
और कहां, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान करते है भिक्षु। ले गया जगह जगह। सम्राट थकने लगा। उसने कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो बीच में स्वर्ण शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं।
लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह भोजनालय देखने मैं नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने लगा यहां यह होता है, यहां यह होता है।
आखिर वापस द्वार पर लौट आए उस बीच के मंदिर में बांकेई नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार बार कहता हूं कि उस मंदिर में ले चलो, वहा क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो!
बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने कहा, वहां वहां ले चलो, जहां जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं वहां वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी नहीं करते। वहा सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर है, मेडिटेशन सेंटर है। वहा हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहा डूइंग नहीं है, वहां बीइंग है। वहां करने का मामला नहीं है। वहा जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते है, तो हम वहां भीतर जाते है। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा था, क्या करते है, वहां ले चलो।
अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या करते है, तो मै क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती , होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई एक्ट नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के यही उचित है कि आप मुझे पागल या बहरा समझकर चले जाएं।
झेन कहता है, ध्यान अर्थात न करना। इस न करने में ही वह जाना जाता है, जो है। झेन बात नहीं करता ब्रह्म की। क्योंकि झेन का कहना यह है कि जब तक ध्यान नहीं, जब तक ज्ञान नहीं, तब तक ब्रह्म की बात व्यर्थ है। और जब ज्ञान हुआ, ध्यान हुआ, तब. भी ब्रह्म की बात व्यर्थ है। क्योंकि जिसे हमने नहीं जाना, उसकी बात क्या करें! और जिसे हमने जान लिया, उसकी बात की क्या जरूरत है! इसलिए झेन चुप है, वह मौन है; वह ब्रह्म की बात नहीं करता।
जय श्री कृष्णा......
आश्रम के दूर दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं अध्ययन करते हैं कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में आश्रम के सारे विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण शिखसे, से मंडित एक मंदिर है।
बांकेई ने कहा, भिक्षु जहां जहां जो जो करते है, वह मैं आपको दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में!
और कहां, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान करते है भिक्षु। ले गया जगह जगह। सम्राट थकने लगा। उसने कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो बीच में स्वर्ण शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं।
लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह भोजनालय देखने मैं नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने लगा यहां यह होता है, यहां यह होता है।
आखिर वापस द्वार पर लौट आए उस बीच के मंदिर में बांकेई नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार बार कहता हूं कि उस मंदिर में ले चलो, वहा क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो!
बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने कहा, वहां वहां ले चलो, जहां जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं वहां वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी नहीं करते। वहा सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर है, मेडिटेशन सेंटर है। वहा हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहा डूइंग नहीं है, वहां बीइंग है। वहां करने का मामला नहीं है। वहा जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते है, तो हम वहां भीतर जाते है। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा था, क्या करते है, वहां ले चलो।
अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या करते है, तो मै क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती , होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई एक्ट नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के यही उचित है कि आप मुझे पागल या बहरा समझकर चले जाएं।
झेन कहता है, ध्यान अर्थात न करना। इस न करने में ही वह जाना जाता है, जो है। झेन बात नहीं करता ब्रह्म की। क्योंकि झेन का कहना यह है कि जब तक ध्यान नहीं, जब तक ज्ञान नहीं, तब तक ब्रह्म की बात व्यर्थ है। और जब ज्ञान हुआ, ध्यान हुआ, तब. भी ब्रह्म की बात व्यर्थ है। क्योंकि जिसे हमने नहीं जाना, उसकी बात क्या करें! और जिसे हमने जान लिया, उसकी बात की क्या जरूरत है! इसलिए झेन चुप है, वह मौन है; वह ब्रह्म की बात नहीं करता।
जय श्री कृष्णा......
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