Sunday, January 3, 2016

king vs teacher


एक बार एक राजा गुरु  की ख्याति से बहुत प्रभावित हुआ, और उसने गुरु से मिलने हेतु उन्हें बहुमूल्य उपहारों के साथ निमंत्रण भेजा। गुरु ने उस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। राजा ने पुनः प्रयास किया-"गुरुदेव, मुझे मेरे महल में आपकी आवभगत करने का अवसर दीजिये, मेरा अनुग्रह स्वीकार करें।"
गुरु ने पुछा-"क्यों, वहाँ क्या तुम मुझे कोई विशेष भेंट दे पाओगे?"
"गुरुदेव मेरा पूरा राज्य आपके लिए भेंट है।"
"नहीं राजन, वही वस्तु भेंट में दे जो वास्तव में आपकी हो। "
"गुरु जी, मैं राजा हूं, राज्य मेरा है।"
"राजा, आपके पूर्वजों ने भी राज्य पर खुद का होने का दावा किया होगा। वे कहां हैं? क्या राज्य उनका रहा? अपने अतीत के जीवन काल में आपने अनेक चीजों को खुद का होने का दावा किया होगा। क्या आप अभी भी उन चीजों के मालिक हैं? यह आपका भ्रम मात्र है। ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।"
राजा अब सोचने लगा कि धन के आलावा वह गुरु को क्या भेंट करे।
"गुरू जी, ऐसा है तो मैं अपना शरीर आपको भेंट करता हूँ।"
"राजा, तुम्हारा यह शरीर एक दिन धूल का ढेर बन जाएगा। एक दिन आप इसका त्याग करके सांसारिक बंधनों से मुक्त होंगे। तो कैसे यह तुम्हारा हो सकता है? ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।"
"मेरे राज्य मेरा नहीं है और मेरा शरीर मेरा नहीं है, तो गुरु जी, तो मेरे मन को भेंट में स्वीकार करिये।"
"राजा, आपका मन लगातार आपको भटकाता है। आप अपने मन के ही गुलाम हैं। जो आपको नियंत्रित करता है उसे आप अपने अधीन नहीं कह सकते। ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।"
राजा दुविधा में पड़ गया। "जब मेरा राज्य, मेरा शरीर, मेरा मन ही मेरा नहीं, तो मेरे पास बचा ही क्या आपको देने के लिए?"
गुरु नानक ने मुस्कुरा कर कहा-"राजन, आप मुझे अपना 'मैं' और 'मेरा' दे दीजिये।" गुरु ने राजन से अपना अहंकार त्यागने का संकेत दिया। राजा गहन चिंतन में पड़ गया और कहा "गुरूजी, मैंने अपना सब कुछ आपको समर्पित कर दिया। मेरा अब कुछ नहीं, अब मैं कैसे शासन करूँ? मेरा मार्गदर्शन करिये।"
"राजा, तुमने हमेशा 'मेरे राज्य', 'मेरा महल', 'मेरा परिवार', 'मेरे खजाना', 'मेरी प्रजा' की मानसिकता के साथ शासन किया है। अब आपने 'मेरा' छोड़ दिया है। आप अब स्वयं के बन्दी नहीं रहे। अब आप परमेश्वर की इच्छा का निमित्त बनिए, और अपनी जिम्मेदारियों का वहन ईश्वर को समर्पण करते हुए करिये।"
राजा की आँखें खुल चुकी थी। वह समझ चुका था कि अहंकार और मोह उसकी आत्मा को जकड़ कर रखा हुआ था।

गुरु को प्रणाम कर वह चल दिया।



जय श्री कृष्णा


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