धनीराम एक कुशल और बहुत ही धनी व्यापारी था। उसने अपने धन से गरीबों की बहुत मदद की थी। अनाथ आश्रम एवं धर्मशाला आदि बनवाए और अपने दानी स्वाभाव के कारण धनीराम का पूरे नगर में बहुत सम्मान था।
धनीराम ने अपनी बेटी की शादी एक बहुत बड़े घर में कर दी, फिर भी बेटी के भाग्य में सुख नहीं था क्योंकि शादी के बाद पता चला कि उसका पति शराबी और जुआरी था। बेटी को उपहार में दिया सारा धन उसके पति ने जुए में समाप्त कर दिया और अब उसकी बेटी बहुत ही गरीबी की जिन्दगी जी रही थी।
एक दिन धनीराम की पत्नि ने धनीराम को कहा, “आप जानते ही हैं कि हमारी बेटी का पति जुआरी है और हमारी बेटी बहुत दु:खी है। आप अपनी बेटी की सहायता क्यो नहीं करते? युं तो पुरी दुनिया की मदद करते फिरते हो।”
धनीराम ने कहा, “भाग्यवान… जब तक बेटी-दामाद का भाग्य उदय नहीं होगा, तब तक मैं उनकी कितनी भी सहायता कर लूं, उससे कोई फायदा नहीं होगा। जब अपनी बेटी का और उसके पति भाग्य उदय होगा, तो अपने आप ही वे सुख का जीवन जीने लगेंगे और हर कोई उनकी मदद करने को तत्पर रहेगा।“
लेकिन माँ का दिल तो माँ का दिल ठहरा। अगर बेटी को कोई परेशानी हो, तो माँ आराम से कैसे रह सकती है? इसीलिए वह बस यही सोंचती रहती कि कैसे वह अपनी बेटी की मदद करे।
एक दिन धनीराम किसी काम से नगर से बाहर चले गए और इसी का फायदा उठा कर धनीराम की पत्नि ने अपनी बेटी और दामाद को भोजन का न्योता भेज दिया। शाम होते-होते बेटी और दामाद धनीराम के घर भोजन को आ गए। सासु माँ ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया, उन्हे बहुत ही स्वादिस्ट भोजन करवाया और बड़े ही प्रेम के साथ विदा किया तथा जाते-जाते एक टोकरी भर कर मोतीचूर के लड्डू भी भेंट स्वरूप अपने दामाद को दे दिया।
धनीराम की पत्नि ने उस लड्डू के बीच में सोने के सिक्के छिपा कर रख दिए थे, जिससे बेटी की मदद भी हो जाएगी और दामादजी को इसका पता भी नहीं चलेगा।
बेटी और दामादजी विदा लेकर चल देते हैं, रास्ते में दामाद अपनी पत्नि को सुना कर कहता है, “कहने को तो तुम्हारे पिता इस नगर के धनवान व्यापारी हैं और विदाई में क्या दिया, केवल मोतीचूर के लड्डू, कौन इतना वजन उठायेगा, ले जाकर इन लड्डूओं को किसी मिठाई वाले को बेच देता हूँ। मेरा कुछ वजन तो कम हो ही जाएगा।”
यह बात कहकर दामाद ने लड्डूओं की टोकरी एक मिठाई वाले को बेच दी और बदले में कुछ रूपए ले लिए।
शाम के समय धनीराम अपने घर को लौट रहा था। रास्ते में वही मिठाई की दुकान दिखी, जिसमें उसके दामाद ने मोतीचूर के लड्डूओं को बेंच दिया था। धनीराम को मोतीचूर के लड्डू बहुत ही पसंद थे इसलिए धनीराम ने मिठाई वाले से वही मोतीचूर के लड्डूओं की टोकरी खरीद ली और अपने घर ले आया।
धनीराम की पत्नि ने जब देखा कि लड्डूओं की टोकरी सेठजी लेकर आ रहे है, तो उन्होने पूछा कि, “यह क्या लेकर आए हैं ?“
धनीराम ने कहा, “तुम्हारे लिए मोतीचूरे के लड्डु लाया हूँ, एक मिठाई की दुकान पर दिखे तो ले आया।“
सेठानी ने लड्डूओ की टोकरी पहचान ली और लड्डू फोड़कर देखा तो उसमे वही सोने के सिक्के निकले जो उसने डाले थे। सेठानी ने यह देख कर अपना सिर पीटा और धनीराम को सारी बात बता दी।
धनीराम ने अपनी पत्नि को समझया कि, “जब तक भगवान किसी के भाग्य को नहीं जगाता, तब तक उसका भाग्य नहींं जागता, फिर चाहे कोई भी कितना ही प्रयास क्यों न कर ले। देखो… यह तुम्हारे सोने के सिक्के वापस तुम्हारे पास ही आ गए क्योंकि ये सिक्के ना तो तुम्हारे बेटी-दामाद के भाग्य में थे और न ही मिठाई वाले के भाग्य में।“
जय श्री कृष्णा......
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